श्रीमद भगवत गीता

भगवान श्री कृष्ण ने जीवन और धर्म के विषय में दिया ये ज्ञान

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।

इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति सभी परिस्थितियों में अनासक्त अर्थात एक समान रहता है। ना सौभाग्य में प्रसन्न होता है और ना ही किसी विवाद या क्लेश में निराश होता है। उसे ही ज्ञान से पूर्ण व्यक्ति कहा जाता है।

इस श्लोक के माध्यम से यह बताया गया है कि व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में अपना आपा या अपना व्यवहार नहीं बदलना चाहिए। जो व्यक्ति सुख एवं दुख में एक समान व्यवहार रखता है और अपने काम को पूर्ण करता है। फल की चिंता किए बिना कर्मों को पूरा करता है। वही सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति कहलाता है। अन्यथा जो खुशी में लोभी हो जाता है और दुख में क्रोध का साथ देता है। ऐसे व्यक्ति से न केवल मनुष्य बल्कि देवता भी क्रोधित हो जाते हैं।

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।।

श्लोक का अर्थ है कि हे अर्जुन! जो भक्त दूसरे या अन्य देवताओं की पूजा श्रद्धा पूर्वक करता है, वह भी मेरा ही पूजन कर रहा है। लेकिन उसकी यह पूजा अवधि पूर्वक होती है।

इस श्लोक में श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया है कि व्यक्ति विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करता है। जिस तरह बुद्धि के लिए माता सरस्वती की पूजा, धन के लिए माता लक्ष्मी की और बल के लिए हनुमान जी की पूजा की जाती है उसी तरह प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी कार्य की पूर्ति के लिए अन्य देवी देवताओं की पूजा करता है। लेकिन वह श्रद्धा भाव अंत में मेरे लिए ही होता है। इस पूजा में व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से मेरा नाम स्मरण नहीं कर रहा है, बल्कि अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए देवताओं की पूजा कर रहा है।

श्रीमद भगवत गीता वर्तमान में धर्म से ज्यादा जीवन के प्रति अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को लेकर भारत में ही नहीं विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रही है। निष्काम कर्म का गीता का संदेश प्रबंधन गुरुओं को भी लुभा रहा है। विश्व के सभी धर्मों की सबसे प्रसिद्ध पुस्तकों में शामिल है।

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